चाणक्य नीति हिन्दी में :- अध्याय ग्यारहवां
1. यद्यपि मेरी बुद्धि देववाणी में श्रेष्ठ है, तब भी मैं दूसरी भाषा का लालची हूं। जैसे अमृत पीने पर भी देवताओं की इच्छा स्वर्ग की अप्सराओं के ओष्ठ रूपी मध को पीने की बनी रहती हैं।
2. अन्न की अपेक्षा उसके चूर्ण अर्थात पीसे हुए आटे में 10 गुना अधिक शक्ति होती है। दूध में आटे से भी 10 गुना अधिक शक्ति होती है। मांस में दूध से भी 8 गुना अधिक शक्ति होती है और घी में मांस से भी 10 गुना अधिक बल है।
3. साग खाने से रोग बढ़ाते हैं, दूध से शरीर बलवान होता है, घी से वीर्य बढ़ता है और मांस खाने से मांस ही बढ़ता है।
4. दान देने का स्वभाव, मधुर वाणी, धैर्य और उचित की पहचान, यह चार बातें अभ्यास से नहीं आती, यह मनुष्य के स्वाभाविक गुण हैं. ईश्वर के द्वारा ही यह गुण प्राप्त होते हैं। जो व्यक्ति इन गुणों का उपयोग नहीं करता, वह ईश्वर के द्वारा दिए गए वरदान की उपेक्षा ही करता है और दुर्गुणों को अपनाकर घोर कष्ट भोगता है।
5. जो अपने वर्ग को छोड़कर दूसरों के वर्ग का आश्रय ग्रहण करता है, वह स्वयं ही नष्ट हो जाता है, जैसे एक राजा अधर्म के द्वारा नष्ट हो जाता है उसके पाप कर्म उसे नष्ट कर डालते हैं।
6. हाथी मोटे शरीर वाला है, परंतु अंकुश से वश में रहता है। क्या अंकुश हाथी के बराबर है ? दीपक के जलने पर अंधकार नष्ट हो जाता है। क्या दीपक अंधकार के बराबर है ?क्या वज्र से बड़े-बड़े पर्वत शिखर टूट कर गिर जाते हैं। क्या वज्र पर्वतों के समान है ? सत्यता यह है कि जिसका तेज चमकता रहता है वही बलवान है।
7. कलयुग में 10000 वर्ष बीतने पर श्री विष्णु इस पृथ्वी को छोड़ देते हैं, इसके आधार बीतने पर गंगा का जल समाप्त हो जाता है और उसके आधा बीतने पर ग्राम के देवता भी पृथ्वी को छोड़ देते हैं। ग्राम के देवता छोड़ने से अभिप्राय कलयुग में साढे 17000 वर्ष बीतने पर धरती की कृषि भूमि भी नष्ट हो जाएगी और तत्पश्चात प्रलय होगी।
8. घर ग्रहस्थी में आसक्त व्यक्ति को विद्या नहीं आती। सिर्फ मांस खाने वाले को दया नहीं आती। धन के लालची को सच बोलना नहीं आता। और स्त्री को आसक्त कामुक व्यक्ति में पवित्रता नहीं होती।
9. जिस प्रकार नीम के वृक्ष की जड़ को दूध और घी से सीचने के उपरांत भी वह अपनी कड़वाहट छोड़कर मृदुल नहीं हो जाता, ठीक इसी के अनुरूप दुष्ट प्रवृत्ति वाले मनुष्य पर सदुपदेशों का कोई भी असर नहीं होता।
10. जिस प्रकार शराब वाला पात्र अग्नि मे तपाए जाने पर भी शुद्ध नहीं हो सकता, उसी प्रकार जिस मनुष्य के हृदय पाप और कुटिलता से भरे होते हैं, सैकड़ों तीर्थ स्थानों पर स्नान करने से भी पवित्र नहीं हो सकते।
11. यह आश्चर्य नहीं है कि जो जिसके गुणों के महत्व को नहीं जानता, वह उसकी सदैव निंदा करता है। जैसे जंगली भीलनी हाथी के मस्तक से प्राप्त मोती को छोड़कर, गुंजाफल की माला को पहनती है।
12. जो कोई प्रतिदिन पूरे संवत भर मौन रहकर भोजन करते हैं, वह हजारों करोड़ों युग तक स्वर्ग में पूजे जाते हैं अर्थात भोजन संतुष्ट पूर्वक प्रसन्न भाव से ग्रहण करना चाहिए।
13. काम, क्रोध, लालच, स्वाद, श्रृंगार, खेल और अत्यधिक सेवा आदि। विद्यार्थी को इन आठों दुर्गुणों का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए।
14. जो ब्राम्हण दुनियादारी के कामों में लगा रहता है, पशुओं का पालन करने वाला और व्यापार तथा खेती करता है, वह बैश्य कहलाता है। भाव यह है कि जन्म से कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शुद्र नहीं होता।
15. लाख आदि, तेल, नील, फूल, शहद, घी, मदिरा और मांस आदि का व्यापार करने वाला ब्राह्मण, शुद्र कहलाता है।
16. दूसरों के कार्य में विघ्न डालकर नष्ट करने वाला, घमंडी, स्वार्थी, कपटी, झगड़ालू,ऊपर से कोमल और भीतर से निष्ठुर ब्राम्हण,बिलाऊ कहलाता है अर्थात वह पशु है, नीच है।
17. बावड़ी,कुआं, तालाब, बगीचा और देव मंदिर को निर्भय होकर तोड़ने वाला ब्राह्मण नीच कहलाता है।
18. देवता का धन, गुरु का धन, दूसरे की स्त्री के साथ प्रसंग करने वाला और सभी में जीवों मे निर्वाह करने अर्थात सबका अन्न खाने वाला ब्राह्मण चांडाल कहलाता है।
19. भाग्यशाली पुण्यात्मा लोगों को खाद्य सामग्री और धन-धान्य आदि का संग्रह न कर करके, उसे अच्छी प्रकार से दान करना चाहिए। दान देने से कर्ण,दैत्यराज बलि और विक्रमादित्य जैसे राजाओं की कीर्ति आज तक बनी हुई है। इसके विपरीत शहद का संग्रह करने वाली मधुमक्खियां, जब तक अपने द्वारा संग्रहीत मधु को किसी कारण से नष्ट हुआ देखती हैं, तो वह अपने पैरों को रगड़ते हुए कहती हैं कि हमने न तो अपने मधु का उपयोग किया और न किसी को दिया ही। यह चाणक्य ने दान के महत्व को प्रतिपादित किया है।